कचरवो करब” संस्कृति और सत्ता का नया चेहरा

By News Desk

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“कचरवो करब” संस्कृति और सत्ता का नया चेहरा

नई ताकत न्यूज़।। मध्यप्रदेश की राजनीति इन दिनों एक अजीब मोड़ से गुजर रही है। भाषा बदल रही है, तेवर बदल रहे हैं और जिम्मेदारी का भाव जैसे कहीं खो गया है। चितरंगी की मंत्री राधा सिंह का ताज़ा विवाद इस बदलाव की सबसे कच्ची, सबसे साफ़ झलक है। पहले पत्रकारों को धक्का देकर बाहर करने का वीडियो, फिर फोन पर आई धमकी और उसमें उनका वह चर्चित वाक्य—“जेकर-जेकर भाव बढ़ा है, ओका कचरवो करब।” यह केवल एक संवाद नहीं, बल्कि सत्ता का असली चेहरा दिखाने वाला क्षण है।

 

पत्रकारों ने जब सामान्य सवाल किए, तो उन्हें जवाब नहीं मिला—धक्का मिला। यह दृश्य केवल घटना नहीं, बल्कि लोकतंत्र की एक दुखद तस्वीर है। सवाल पूछना लोकतंत्र की पहली सीढ़ी है, और उसी को सबसे पहले ठोकर मार दी गई। वीडियो वायरल हुआ, पत्रकार जगत नाराज़ हुआ और जनता ने पूछा—“सवाल पूछना क्या अब अपराध है?”

 

फिर सामने आया धमकी वाला फोन कॉल। शब्द कम थे, लेकिन अर्थ बहुत भारी। यह एक मंत्री का निजी क्षण नहीं था, यह सत्ता की सोच का सार्वजनिक नमूना था। जिस सरलता से धमकी दी गई, वह बताता है कि अहंकार अब सामान्य व्यवहार में बदल चुका है। संवाद में मर्यादा नहीं, तेवर था—और तेवर भी ऐसा कि जनता चौंक उठी।

 

सोशल मीडिया ने इसे हाथों-हाथ उठा लिया। मीम्स, व्यंग्य और कटाक्षों की बाढ़ आ गई। किसी ने लिखा कि मंत्री जी का फोन अब “धमकी हॉटलाइन” बन गया है। किसी ने कहा कि अब फोन उठाते समय भी डर लगेगा कि कहीं दूसरी तरफ से “कचरवो करब” न सुनाई दे जाए। जनता का व्यंग्य अक्सर राजनीति का सबसे सटीक विश्लेषण होता है।

 

विपक्ष ने इसे सत्ता का नशा बताया और मुख्यमंत्री से कार्रवाई की मांग की, लेकिन सरकार की तरफ से चुप्पी ही मिली। यह चुप्पी और भी बड़े सवाल खड़ी करती है। क्या यह भाषा स्वीकार है? क्या धमकी देने वाले संवाद सामान्य माने जा रहे हैं? या फिर सत्ता का भार इतना बढ़ गया है कि मर्यादा अब उसमें दब जाती है?

 

चितरंगी के लोग बताते हैं कि क्षेत्र में सड़क, पानी, बिजली, रोजगार जैसी मूल समस्याएँ अभी भी जस की तस हैं। विकास की गति धीमी है, लेकिन धमकियों की गति 5G जैसी तेज। जनता के तानों में यह शिकायत साफ़ सुनाई देती है—काम कम, तेवर ज़्यादा। चुनावी वादे पीछे छूट गए और वीडियो आगे निकल गए।

 

सच यह है कि मामला केवल शब्दों का नहीं, मानसिकता का है। भाषा किसी की संस्कृति का दर्पण होती है, और जब जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि धमकी भरी भाषा बोलने लगे, पत्रकारों को धक्का दे दे, और आम लोगों से ऊँचे स्वर में बात करे, तो लोकतंत्र अंदर ही अंदर घायल होने लगता है। सत्ता जब संवाद खो देती है, तो जनता का भरोसा भी उससे दूर होने लगता है।

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