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शेरा नाम का शेर जंगल के सबसे कुशल और क्रूर शिकारियों में गिना जाता था। अपने दल के साथ उसने न जाने कितने भैंसों, हिरणों और अन्य जानवरों का शिकार किया था। धीरे-धीरे उसे अपनी काबिलियत का घमंड होने लगा। एक दिन उसने अपने साथियों से कहा, ‘आज से जो भी शिकार होगा।
उसे सबसे पहले मैं खाऊंगा उसके बाद ही तुममें से कोई उसे हाथ लगाएगा।’ शेरा के मुंह से ऐसी बातें सुन सभी अचंभित थे। तभी एक बुजुर्ग शेर ने पूछा, ‘अरे तुम्हें आज अचानक क्या हो गया। तुम ऐसी बात क्यों कर रहे हो?’ शेरा बोला, ‘मैं ऐसी-वैसी कोई बात नहीं कर रहा। जितने भी शिकार होते हैं, उसमें मेरा सबसे बड़ा योगदान होता है। इसलिए शिकार पर सबसे पहला हक मेरा ही है।’ अगले दिन एक सभा बुलाई गयी।
अनुभवी शेरों ने शेरा को समझाया, ‘देखो शेरा, हम मानते हैं कि तुम एक कुशल शिकारी हो। पर यह भी सच है कि बाकी शेर भी अपनी क्षमतानुसार शिकार में पूरा योगदान देते हैं। इसलिए हम इस बात के लिए राजी नहीं हो सकते कि शिकार पर पहला हक तुम्हारा हो। हम सब मिलकर शिकार करते हैं और हमें मिलकर ही उसे खाना होगा।’ शेरा को यह बात पसंद नहीं आई। अपने ही घमंड में चूर वह बोला, ‘कोई बात नहीं, आज से मैं अकेले ही शिकार करूंगा।
ऐसा कहते हुए शेरा सभा से उठकर चला गया। कुछ समय बाद जब शेरा को भूख लगी तो उसने शिकार करने के लिए सोचा। वह भैंसों के एक झुण्ड की तरफ दहाड़ते हुए बढ़ा। पर यह क्या जो भैंसें उसे देखकर कांप उठती थीं। आज उसके आने पर जरा भी नहीं घबराई उलटे एक-जुट होकर उसे दूर खदेड़ दिया। शेरा ने सोचा चलो कोई बात नहीं मैं हिरणों का शिकार कर लेता हूं और वह हिरणों की तरफ बढ़ा। पर अकेले वह कहां तक इन फुर्तीले हिरणों को घेर पाता।
अब शेरा को अहसास हुआ कि इतनी ताकत होते हुए भी बिना दल का सहयोग पाए वह एक भी शिकार नहीं कर सकता। उसे पछतावा होने लगा। अब वह सामूहिक प्रयास की कीमत समझ चुका था। वह निराश होकर बाकी शेरों के पास पहुंचा और अपने इस व्यवहार के लिए क्षमा मांगी।
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